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किसानको ही रोटी नहीं मिली तो क्या होगा देश के अन्न सुरक्षा का?

किसानको ही रोटी नहीं मिली तो क्या होगा देश के अन्न सुरक्षा का?

कोविड और यूक्रेन युद्ध के पार्श्व भूमि पर, विश्वभरके देशों के आंतरराष्ट्रीय संबंधों मे तेजीसे बदलाव हो रहे है. इसके कारण आंतर राष्ट्रीय व्यापार मे बदलाव आ रहे है और अन्न सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा बन रहा है. पर्यावरण मे देखे जा रहे चरमता के कारण, कृषि उपज मे अस्थिरता आ रही है. जो अन्न सुरक्षा की गंभीरता को और डरावना करता है.

इस परिपेक्ष मे भारत की स्थिति क्या है? भारत में फसल की उपज लेनेवाला किसान ही खाली पेट सोने पर मजबूर है. कृषि पर आधारित ग्रामीण आजीविका अबी स्थाई नही है, पेट पालना मुश्किल है. लोग शहरों का रुख कर रहे है और विकास के आभाव से गाव उजड़ रहे है. कृषि और ग्रामीण सुधारों के आभाव में, मलोग जिस थाली मे खा रहे है उसीमे छेद कर रहा है!

दी प्रिन्ट मे छपे लेख मे एम एस श्रीराम भारतीय कृषि के स्थायी आजीविका होने पर प्रश्न उठाते है. फसलों के भरोसे किसान का पेट पालना नामुमकिन है. ऐसा नहीं है के हमे ग्रामीण आजीविका से जुड़े समस्याओका ज्ञान नहीं है.
  • छोटी विखंडित भूमि
  • घटती कमाई
  • बिगड़ता पर्यावरण
  • सिचाई का आभाव
  • मिट्टी के उर्वरता मे कमी
  • एक फसलीय पद्धति का चलन
  • हर दिन महंगे हो रहे संसाधन (बीज, खाद, उर्वरक, मशीनरी)

इन समस्याओं से हर कोई वाकिब है. प्रश्न यह है के, इन समस्याओ को सुलजाए कैसे?


एक धड़ा मानता है के कृषि को बाजार के भरोसे छोड़ना होगा! सरकार इसमे अपना प्रभाव कम करे. वो मानते है के हमारे कृषि संबंधित समस्याए तांत्रिक (वैज्ञानिक) गलतियों से निर्माण हुई है. इसमे सुधार भी तकनीकी तरीकों से ही होगा. आनुवंशिकता सुधारित फसले, उर्वरक और दवाओ का उपयोग, बीना मिट्टी की (हायड्रॉपोनिक्स) फसले... इनको पर्याय माना जा रहा है. मार्केट रेट के आधार मे फसलों का चुनाव और उपज मे बदलाव करना होगा. धान और गन्ने को भाव नहीं मिलेगा तो किसान अन्य फसलों का रुख करेंगे. यही लोग मानते है के अगर वापिस लिए गए नए कृषि कानून ठीक से लागू होते तो अब तक उनका जादुई असर हमे देखने मिल जाता!

दूसरा धड़ा मानता है के सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़चढ़ कर लागू करना चाहिए, उसके तहत खरीद करनी चाहिए. कृषि मे शून्य बजट प्राकृतिक खेती और जैविक खेती को बढ़ाना होगा.

उपरोक्त दोनों पक्ष इस बात से सहमत हैं कि अमूल या किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) द्वारा प्रस्तुत सहकार जैसी संरचनाओं का उपयोग करना होगा.

देश के आजादी के अमृत महोत्सव तक हम इन बुनियादी मुद्दों पर अटके हुए है. यह एक विडंबना है! 


अगर दूसरे किसी देश से हमारे देश की तुलना करे तो हमे चायना से तुलना करनी होगी. उनकी लोकसंख्या हमारी तरह ज्यादा है और उनकी अर्थव्यवस्था मे कृषि की हिस्सेदारी भी थोड़ी बहोत एकजैसी है.

ग्लोबल टाइम्स के हवाले से चली खबर नुसार,हाल ही मे चीनके राष्ट्रपति शी जिनपिंगने ग्रामीण कार्य सम्मेलन में शिरकत की. उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों मे विकास करने पर जोर दिया. उन्होंने माना के कृषि को मजबूत किए बिना देश का निर्माण नहीं हो सकता. विकास के पश्चिमी मानक किसानों को और ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को कंगाल करते है. जिन देशों मे अधिकतर लोगों की रोजी-रोटी कृषि से जुड़ी है, उन्हे शहरों के बजाय ग्रामीण क्षेत्रों को प्रगत, आधुनिक और मजबूत करना होगा. ऐसा ना करने से इन देशों की अन्न सुरक्षा खतरे मे आ सकती है. उन्होंने कहा के, पिछले एक दशक में; चीन ने कृषि, ग्रामीण क्षेत्रों और किसानों से संबंधित कार्यों की नींव को मजबूत करके ग्रामीण पुनरोद्धार को बढ़ावा दिया और अनाज उत्पादन क्षमता में लगातार वृद्धि की है.

हमारी समझ मे, कृषि एक राष्ट्रीय महत्व का विषय है. हर किसान का दायित्व है के वह अच्छे गुणवत्ता की अधिकतम उपज ले. बदलेमे उसे उचित चरितार्थ उपलब्ध कराना और उसके योगदान को पहेचान देना, सरकार और समाज का दायित्व है. बदलते पर्यावरण का सामना करने हेतु, सिचाई हेतु, संसाधन जुटाने हेतु हमे किसानों को बुनियादी सहाय्यता देनी ही होगी. यह उनका अधिकार और सरकार का दायित्व है. अगर सरकार और समाज अपने दायित्व को नहीं निभाते तो सचमुच "हम जीस थाली मे खा रहे है, उसीमे छेद कर रहे है !

आज अगर हम हमारे किसान को भूके पेट सोते हुए देखते रहेंगे तो कल हमारे चमचमाती रसोई में उबले हुए पानी के पराठे और उबले हुए पानी की तरकारी बनेगी. ध्यान रहे!   

इस बारे मे आप क्या सोचते है? यह कमेंट मे लिखे. लेख पसंद आया हो तो अवश्य शेअर करे.

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