खेतों का दर्द, किसान की आह: आत्महत्या नहीं, हताशा की जमीन पर खड़ी जंग
भाई-बहनों, आज हम बात करेंगे एक ऐसी सच्चाई की, जो हमारे खेतों में पनपती है, किसानों के दिलों में दबी रहती है और कभी-कभी चीख बनकर फूट पड़ती है - किसान आत्महत्या. ये सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, ये हमारी अर्थव्यवस्था की खामी का वो घिनौना सच है, जो सिर्फ भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में किसानों को तड़पाता है.
ये आत्महत्या आम लोगों की आत्महत्या से अलग है, क्यों? क्योंकि किसान की ज़िंदगी ज़मीन से जुड़ी होती है, वो मौसम की मार, फसल के उतार-चढ़ाव और कर्ज़ के बोझ तले दबे रहता है. अचानक आई सूखा या बाढ़, बेमौसम बारिश या कमज़ोर मंडी, सारी मेहनत पर पानी फेर देते हैं. कर्ज़ का बोझ बढ़ता जाता है, परिवार की चिंता सताती है और अकेलेपन का अंधकार घेर लेता है. ऐसी हताशा में कई बार हार मान लेने का खयाल आता है, जो कभी-कभी हद पार कर जाता है.
लेकिन क्या यही रास्ता है? क्या एक खेत की बर्बादी के साथ सपनों का पूरा खेत ही सूख जाना चाहिए? बिल्कुल नहीं! हमें ये समझना होगा कि किसान आत्महत्या एक लक्षण है, किसी बड़ी बीमारी का. इस बीमारी की जड़ें हमारी अर्थव्यवस्था और समाज की खामियों में छिपी हैं.
सरकार को चाहिए कि वो आंखें खोले और सच को माने. आंकड़ों को दबाने के बजाय किसानों की तकलीफ को समझे. उन तक उचित मूल्य, फसल बीमा, कर्ज़ राहत जैसी ज़रूरी सहूलियतें पहुंचाए. सिर्फ नारे नहीं, ठोस कदम उठाए.
राजनैतिक पार्टियों को किसानों को मोहरा बनाने के बजाय उनके हितों की लड़ाई लड़नी चाहिए. झूठे वादों के जाल के बजाय असली बदलाव की ज़मीन तैयार करें.
हम सब समाज के लोग, किसानों के प्रति संवेदना जगाएं, उनकी मुसीबत को अपनी मुसीबत समझें. उनके साथ खड़े हों, उनकी आवाज़ बनें.
और सबसे ज़रूरी, किसान भाइयों, हमें खुद को हारने नहीं देना है. हताशा के अंधकार में उम्मीद का दीप जलाना है. अपने हक़ के लिए लड़ना है, साथ मिलकर वो व्यवस्था बदलनी है, जो हमें कमज़ोर बनाती है. मजबूत सहकारी समितियां बनाएं, ज्ञान और तकनीक का सहारा लें, टिकाऊ खेती अपनाएं. ज़रूर एक ऐसा दिन आएगा, जब हमारे खेत खुशहाली से लहलहाएंगे और आत्महत्या नहीं, किसानों की जयकार सुनाई देगी.
याद रखिए, हार मानना आसान है, लेकिन लड़ना ही असली जीत है. आइए सब मिलकर वो जंग लड़ें, जो किसानों को आत्महत्या के रास्ते से हटाकर खुशहाली की राह पर ले जाए.
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